… शुरू से अन्त तक तथा प्रत्येक पग पर श्रद्धा आवश्यक है क्योंकि यह अन्तरात्मा की एक ऐसी अनुमति है जो अपेक्षित है और इस अनुमति के बिना किसी भी प्रकार की प्रगति नहीं हो सकती। सर्वप्रथम, योग के मूल सत्य और तत्त्वों में हमारी श्रद्धा दृढ़ होनी चाहिये, और चाहे हमारी बुद्धि के अन्दर यह श्रद्धा आच्छन्न हो जाये, हृदय के अन्दर यह निराशा से ग्रस्त हो उठे, कामनामय प्राणिक मन के अन्दर सतत निषेध और विफलता के कारण पूर्णतया क्लान्त और समाप्त हो जाये फिर भी हमारी अन्तरतम आत्मा के अन्दर कोई ऐसी चीज अवश्य होनी चाहिये जो इसके साथ चिपकी रहे और इसकी ओर बार-बार लौट आये, अन्यथा हम मार्ग पर गिर सकते हैं अथवा दुर्बलतावश एवं अल्पकालिक पराजय, निराशा, कठिनाई और संकट को सहने में असमर्थ होने के कारण मार्ग को त्याग भी सकते हैं। जीवन की भांति योग में भी वही मनुष्य, जो प्रत्येक पराजय एवं मोहभंग के सामने तथा समस्त प्रतिरोधपूर्ण, विरोधी और निषेधकारी घटनाओं एवं शक्तियों के समक्ष बिना थके-हारे अन्त तक डटा रहता है, वही अन्त में विजयी होता है और देखता है कि उसकी श्रद्धा सच्ची सिद्ध हुई है क्योंकि मनुष्य में रहने वाली आत्मा और दिव्य शक्ति के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है।
संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-२४)
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