शाश्वतता के शुभ्र शिखर पर अनावृत
अनन्तताओं का एकाकी पुरुष अनन्य,
शांति के अग्नि-पट से रखता है अभिरक्षित
अपने निरावरण आनन्द का एकान्त रहस्यमय।
किन्तु, किसी संभावी अमित आह्लाद से संस्पर्शित,
वह करता है दृष्टिपात अंतहीन गहराइयों के पार
और देखता है अचेतन नीरवताओं में ध्यानरत
महान माता का मूक हर्ष अपार ।
अर्धजागृत अब वह उसकी दृष्टि में होती है उदित,
तब, अपने हृदय-स्पंदनों की इच्छा से चक्राकार होती है संचलित,
लयात्मक जगत उस मादक नृत्य का करते हैं निरूपण।
जीवन का उसमें होता उद्भव और जन्म लेता है मन;
जो वह स्वयं है उसकी तरफ वह अपना मुख करती है उन्नत,
जब तक आत्मा उछलकर आत्म-आलिंगन में हो समाहित।
(अमृता भारती द्वारा अनुवादित)
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