इस तप्त कमरे में बिस्तर के नाम को थे दो जेल के बने मोटे कम्बल तकिया नदारद, एक कम्बल को नीचे बिछा लेता और दूसरे की तह करके तकिया बना सोता। जब गरमी असह्य हो उठती और बिस्तर पर न रहा जाता तब मिट्टी में लोट लगा, बदन ठण्डा कर आराम पाता था। माता वसुन्धरा की शीतल गोद के स्पर्श का क्या सुख है यह तभी जाना। फिर भी, जेल में उस गोद का स्पर्श बहुत कोमल नहीं होता, उससे निद्रा के आगमन में बाधा आती, अतः कम्बल की शरण लेनी पड़ती। जिस दिन वर्षा होती वह दिन बड़े आनन्द का दिन होता। इसमें भी एक असुविधा यह थी कि झड़ी-झंझा होते ही धूल, पत्ते और तिनकों से भरे प्रभजन के ताण्डव-नृत्य के बाद मेरे पिंजरे के अन्दर बाढ-सी आ जाती। ऐसे में रात को भीगा कम्बल ले कमरे के एक कोने में दुबकने के सिवा और कोई चारा न रहता। प्रकृति की इस विशिष्ट लीला के समाप्त होने पर भी जलप्लावित धरती जब तक सूख नहीं जाती थी तब तक निद्रादेवी की आशा छोड़ विचारों का दामन पकड़ना पड़ता था। एकमात्र सूखी जगह थी शौच के आसपास, किन्तु वहाँ कम्बल बिछाने की प्रवृत्ति न होती। इन सब असुविधाओं के होते हुए भी झड़ी-झंझा के दिन भीतर खूब हवा आती और कमरे की जलती भट्टी का ताप दूर हो जाता, इसलिए झड़ी-झंझा का सादर स्वागत करता।…
संदर्भ : कारावास की कहानी
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