चेतना की उच्चतर स्थिति में पहुंचने से पहले एक ऐसी स्थिति आती है जहाँ मनुष्य अपने अन्दर तर्क-शक्ति को-एक स्पष्ट सुनिश्चित युक्तिसंगत तर्क-बुद्धि को विकसित कर सकता है जो चीजों को पर्याप्त रूप में तटस्थ दृष्टि से देख सके। और इस बुद्धि का पर्याप्त विकास कर चुकने पर तुम अपने सब आवेगों, अनुभवों, कामनाओं, समस्त अस्त-व्यस्तताओं को इस तर्क-बुद्धि के समक्ष रख सकते हो और इससे तुम विवेकशील बन जाते हो। अधिकतर लोग तकलीफ़ में पड़ कर अविवेकी हो जाते है । उदाहरण के लिए, जब वे बीमार हो जाते हैं तब अपना समय वे यह कहते हुए बिताते हैं, “ओह, मैं कितना बीमार हूँ, कितना कष्टकर है यह, क्या हमेशा ऐसी ही स्थिति बनी रहेगी?” और स्वाभाविक है कि अवस्था बिगड़ती चली जाती है। या जब कोई दुर्भाग्य उन पर आ पड़ता है तो वे चिल्ला उठते हैं, “केवल मुझ पर ही ऐसी चीजें आती हैं और मैं सोचता था कि अब तक सब कुछ ठीक ही चल रहा है”, और उनके आँसू टप-टप गिरने लगते हैं, स्नायुएँ परेशान हो उठती हैं। हाँ, अतिमानव की तो बात ही अलग है, स्वयं मनुष्य के अन्दर ही एक उच्चतर सामर्थ्य है जिसे विवेक-बुद्धि कहते हैं, जो चीज़ों को धीरता से, शान्ति से, युक्तिसंगत तरीके से देख सकती है। यह बुद्धि तुमसे कहती है, “चिन्ता न करो, इससे कुछ भी सधार न होगा, तुम्हें शिकायत नहीं करनी चाहिये, जब यह बात घट ही गयी तो इसे स्वीकार कर लेना चाहिये।” तब तुम तुरन्त शान्त हो जाते हो। यह मन के लिए एक बहुत अच्छा प्रशिक्षण है; इससे निर्णय-शक्ति, दृष्टि और वस्तुनिष्ठता का विकास होता है और साथ ही तुम्हारे चरित्र पर इसकी बहुत स्वस्थ क्रिया होती है। इससे तुम्हें अपनी स्नायुओं पर जोर डालने की मूर्खता से बचने और विवेकपूर्ण व्यक्ति की तरह आचरण करने में सहायता मिलती है।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५०-१९५१
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…