भागवत चेतना की विभिन्न अवस्थाएँ होती हैं। रूपांतर की भी विभिन्न अवस्थाएँ होती है। पहली है, चैत्य रूपांतर, जिसमें चैत्य चेतना के द्वारा सभी कुछ भगवान के सम्पर्क में होता है। अगली अवस्था है, आध्यात्मिक रूपान्तर, जिसमें सब कुछ वैश्व चेतना में भगवान के अंदर विलीन हो जाता है। तीसरी है, अतिमानसिक रूपान्तर, जिसमें सब कुछ भागवत विज्ञानमय चेतना में अतिमानस बन जाता है। केवल इस अंतिम के द्वारा ही मन, प्राण तथा शरीर का पूर्ण रूपांतर होना आरम्भ हो सकता है – जिसे मैं पूर्णता कहता हूँ।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (भाग-२)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…