इस परिपूर्ण शक्ति-चाप के अन्दर हमारा सीमित क्षेत्र निश्चित है
हमारे निरीक्षण और स्पर्श बोध की तथा विचार के अनुमान की सीमा है
और विरले क्षणों में परम-अज्ञेय का प्रकाश उदित हो उठता है
जो हमारे अन्तर में द्रष्टा और ऋषि को जगा देता है।
संदर्भ : “सावित्री”
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…