“यह रही में।”


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

प्रभो, मैं तेरे सम्मुख हूं, दिव्य ऐक्य की धधकती अग्नि में प्रज्वलित हवि की तरह हूँ।…

और इस तरह जो कुछ तेरे आगे है वह है इस मकान के सभी पत्थर और इसके अन्दर की सभी चीजें, वे सब जो इसकी देहली पार करते हैं और वे सब जो इसे देखते हैं, वे सब जो किसी-न-किसी रूप में इसके साथ सम्बन्ध रखते हैं वे सभी तेरे सम्मुख हैं और एक से लेकर दूसरे तक, समस्त पृथ्वी तेरे सम्मुख है। इस केन्द्र से यह धधकता अग्निकुण्ड, जो तेरे प्रकाश और तेरे प्रेम से व्याप्त है, और अधिकाधिक व्याप्त होगा, यहां से समस्त पृथ्वी पर तेरी शक्तियां विकीरित होंगी, चाहे दिखायी दें या न दीखें, वे सबके हदयों में और सबके विचारों में विकीरित होंगी…

… हे दुःखी और अज्ञानी मेरे प्रिय बालको, हे विद्रोही और उग्र प्रकृतिवालो, अपने हृदयों को खोलो, अपनी शक्तियों को शान्त करो, यह लो, यह आ रही है प्रेम की सर्वशक्तिमत्ता, यह रही प्रकाश की शुद्ध दीप्ति जो तुम्हारे अन्दर प्रवेश करती है। यह मानव मुहूर्त, यह पार्थिव मुहूर्त, अन्य सभी मुहतों की अपेक्षा अधिक सुन्दर है। हर व्यक्ति, सभी इसे जानें और दी गयी परिपूर्णता में आनन्द मनायें।

हे दुःखी हृदयो और चिन्ताकुल भौहो, मूर्खतापूर्ण अज्ञान और अज्ञानमयी दुर्भावना, तुम्हारा परिताप शान्त हो और मिट जाये।

लो, नवीन वाणी की भव्यता आ रही है:

“यह रही मैं।”

 

संदर्भ : प्रार्थना और ध्यान 


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