तुम्हारी चेतना की गहराइयों में तुम्हारे अंदर रहने वाले भगवान का मंदिर, तुम्हारा चैत्य पुरुष है। यही वह केंद्र है जिसके चारों ओर तुम्हारी सत्ता के इस सब विभिन्न भागों को, इन सब परस्पर-विरोधी गतियों को जाकर एक हो जाना चाहिये। तुम एक बार चैत्य पुरुष की चेतना को और उसकी अभीप्सा को पा लो तो इन संदेहों और कठिनाइयों को नष्ट किया जा सकता है। इस काम में कम या अधिक समय तो लगेगा, परंतु अंत में तुम अवश्य सफल होओगे। तुमने एक बार भगवान की ओर मुड कर कहा : “मैं तेरा होना चाहता हूँ,” और भगवान ने “हाँ” कह दिया तो समस्त जगत तुमको उनसे अलग नहीं रख सकता। जब केंद्रीय सत्ता ने समर्पण कर दिया है तो मुख्य कठिनाई दूर हो जायेगी। बाह्य सत्ता तो एक जमी हुई पपड़ी की तरह है। साधारण लोगो में यह पपड़ी इतनी कठोर और मोटी होती है की इसके कारण वे अपने अंदर के भगवान से सचेतन नहीं हो पाते। परंतु यदि आन्तरपुरुष ने एक बार, क्षण-भर के लिए ही सही, यह कह दिया है : “मैं यहाँ हूँ और मैं तेरा हूँ” , तो मानो एक पूल बांध जाता है और यह पपड़ी धीरे-धीरे पतली-से-पतली पड़ती जाती है, और एक दिन आयेगा जब दोनों भाग पूर्ण रूप से जुड़ जाएँगे और आंतर तथा बाह्य दोनों एक हो जायेंगे।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…