मेरी भेंट को अस्वीकार न कर


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

. . . (हे प्रभो!)  तू यह निश्चय कब करेगा कि इस सारे प्रतिरोध के ग़ायब होने का समय आ गया है!

धरती पर तूफ़ान की तरह विकराल शक्तियाँ झपट पड़ी हैं, ऐसी शक्तियाँ जो अंधेरी हिंसात्मक, शक्तिशाली और अंधी हैं। हे प्रभो, हमें शक्ति दे कि हम उन्हें प्रदीप्त कर सकें । तेरी भव्यता को उनके अंदर  हर जगह फूट पड़ना और उनकी क्रियाओं को रूपांतरित करना चाहिये : उनकी विनाशकारी यात्रा अपने पीछे दिव्य बुआई छोड़ जाये। . . .

ओ मेरे दिव्य स्वामी, मेरी भेंट को अस्वीकार न कर। मुझे इस योग्य बना कि मैं दान की बहुलता और अभिव्यक्ति की परिपूर्णता में पूरी तरह तेरी हो जाऊँ।

संदर्भ : प्रार्थना और ध्यान 


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