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मांगो और मांगो

(आश्रम के बहुत पुराने सदस्य स्व. उदार पिंटों को कौन नहीं जानता ? श्रीमाँ के बहुत निकट थे उदार दा । आश्रम के कई विभागों की शुरुआत में उदार दा का बड़ा हाथ था। उन्हीं का एक लघु संस्मरण है )

श्रीमाँ ने एक बार मुझसे कहा था,

“मैं हमेशा तुम्हारे साथ होउंगी, निरंतर तुम्हारी देखभाल करती रहूँगी, मुझे बस तुम पुकारो।” और यह भी कहा था, “लोग मुझे बहुधा पुकारते ही नहीं हैं, मुजसे पर्याप्त मात्रा में माँगते ही नहीं हैं ।”

यह ऐसी चीज़ थी जिसके बारे में मैं जानता ही नहीं था, इस विषय पर मैंने पहले कभी सोचा तक नहीं था। उन्होने मुझसे कहा, “मांगो, मांगो, माँगते रहो, जो चाहो तुम मुझसे मांग सकते हो। तुम्हारा काम है मांग करना, मैं दूँ या न दूँ, यह मेरा मामला है। लेकिन मांगने में कोई हर्ज़ नहीं है, मुझसे तुम कोई भी चीज़ मांग सकते हो ।”

तो उस दिन से मैंने श्रीमाँ से मांगना शुरू कर दिया। मैं छोटी-से-छोटी चीज़ के लिए भी श्रीमाँ से पूछने लगा, मुझे जो भी चाहिये होता, मैं उसकी मांग कर लेता, भले वह नगण्य से नगण्य वस्तु क्यों न होती ।

अगर मैं सवेरे तीन बजे उठना चाहूँ तो मेँ श्रीमाँ से ही कहता हूँ, उनसे मांग करता हूँ, “माँ, आप मुझे कल सवेरे तीन बजे उठा देंगी न ?”

मुझे कभी अलार्म घड़ी की जरूरत न पड़ी।

अपना यह वादा माँ बड़ी भव्यता के साथ निभाती चली आ रही हैं। वे हमेशा मेरे साथ होती हैं, मेरे बहुत, बहुत करीब, और अगर कभी-कभी मेँ इस अनुभव से जरा दूर हट जाऊँ तो मुझे उन्हे पुकारना भर होता है और तुरंत मुझे उनकी उपस्थिती का अनुभव होता है। बहुत प्रबल अनुभव होता है। तब तो यह बात एकदम सही है कि श्रीमाँ सब जानती है । यहा तक कि उन्हें यह भी ज़रूर पता था कि वे अगले साल (१९७३ मेँ) प्रयाण कर लेंगी। वे जानती थी कि भौतिक रूप से वे हमें छोड़ देंगी, और सचमुच १७ नवम्बर १९७३ को उन्होने प्रयाण कर लिया, और जानते हो इस तरह उन्होने क्या किया ? अब हमें उनके पास नहीं जाना होता है बल्कि वे ही हमारे पास निरंतर आती रहती हैं।

श्रीमाँ ने मुझसे यह वादा किया था और मुझे पूरा विश्वास है कि उनकी यह प्रतिज्ञा हम सब पर, उनके हर एक बच्चे पर लागू होती है ।

संदर्भ : उदार पिंटों का साक्षत्कार ऐनी के साथ 

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