हम सब के अन्दर समरूप से जो भागवत उपस्थिती है वह कोई अन्य प्राथमिक मांग नहीं करती यदि एक बार इस प्रकार से श्रद्धा और हृदय की सच्चाई के साथ तथा मूलतः पूर्णता के साथ सम्पूर्ण आत्म-समर्पण कर दिया जाये। सब इस द्वार तक पहुंच सकते हैं, सब इस मन्दिर के अन्दर प्रवेश कर सकते हैं, सर्वप्रेमी के इस प्रासाद में हमारे सारे सांसारिक भेद हवा हो जाते हैं। यहां पुण्यात्मा का न कोई विशेष आदर है, न पापात्मा का तिरस्कार; पवित्रात्मा और शास्त्रविधि का ठीक-ठीक पालन करने वाला सदाचारी ब्राह्मण और पाप और दुःख के गर्भ से उत्पन्न तथा मनुष्यों द्वारा तिरस्कृत-बहिष्कृत चाण्डाल दोनों ही एक साथ इस रास्ते पर चल सकते और समान रूप से परमा मुक्ति और सनातन के अन्दर परम निवास का मुक्त द्वार पा सकते हैं। पुरुष और स्त्री दोनों का ही भगवान् के सामने समान अधिकार है। क्योंकि भागवत आत्मा मनुष्यों को देख-देख कर या उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा या मर्यादा को सोच-सोच कर उसके अनुसार आदर नहीं देती; सब बिना किसी मध्यवर्ती या बाधक शर्त के सीधे उसके पास जा सकते हैं। भगवान् कहते हैं कि, “यदि कोई महान् दुराचारी भी हो और वह अनन्य और सम्पूर्ण प्रेम के साथ मेरी ओर देखे तो उसे साधु ही समझना चाहिये, उसकी प्रवृत्तिशील संकल्पशक्ति स्थिरभाव से और पूर्ण रूप से ठीक रास्ते पर आ गयी है। वह जल्द ही धर्मात्मा बन जाता और
शाश्वत शान्ति लाभ करता है।”
संदर्भ : गीता प्रबंध
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