यदि अधिकतर भारतीय सचमुच अपने सम्पूर्ण जीवन को सच्चे अर्थ में धार्मिक बना पाते तब हम लोगों की ऐसी स्थिति नहीं होती जैसी आज है। ऐसा इसलिए हुआ कि उनका सार्वजनिक जीवन अधार्मिक, अहंकारी, स्वार्थपरक, भौतिक हो गया। हमारे पतन का कारण यही है। एक ओर हम अत्यधिक धार्मिकता में, अर्थात् बाह्याचार, कर्मकाण्ड, यन्त्र की तरह भक्तिभाव-रहित पूजापाठ में भटक गये तथा दूसरी ओर अत्यधिक पलायनवादी वैराग्य-वृत्ति में उलझ गये, जिसने समाज की सर्वोत्तम प्रतिभाओं को अपनी ओर आकृष्ट कर लिया। इस प्रकार जो लोग प्राचीन ऋषियों के समान समाज के आध्यात्मिक अवलम्ब तथा ज्योतिर्मय जीवनदाता बन सकते थे वे समाज के लिए मृत या लुप्त हो गये। किन्तु मूल कारण था सामान्य स्तर पर तथा व्यापक रूप से क्षीयमान होता हुआ आध्यात्मिक
प्रवेग, बौद्धिक गतिविधि तथा स्वाधीनता का हास, महान् आदशों की कमी, जीवन की उमंग में क्षीणता।
संदर्भ : श्रीअरविंद (खण्ड-२०)
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