श्रीअरविंद आश्रम की क्रीड़ाभूमि में सप्ताह में दो बार सामूहिक ध्यान होता है। एक दिन ध्यान से लौटते समय अनिल मुखर्जी नामक एक साधक ने श्रीअरविंद के प्रमुख शिष्य नलिनी कान्त गुप्त से सहसा पूछा, “दादा, आप ही ऐसे एकमात्र व्यक्ति हैं जो ५० वर्ष तक श्रीअरविंद के इतने समीप रहे। आपने उन्हें उठते-बैठते, बोलते-चालते, सोते और खाते हुए देखा है । हमने तो उनके दर्शन भी नहीं किये, उनकी वाणी भी नहीं सुनी। भावी पीढ़ियाँ यह जानना चाहेंगी कि मनुष्य के रूप में वे कैसे चालते और बोलते थे, कार्य और वार्तालाप करते थे। कृपा करके श्रीअरविंद के मानव रूप के विषय में कुछ लिखिये। आपके अतिरिक्त यह महान कार्य कोई नहीं कर सकता । ”
साधक की यह बात सुनकर नलिनी गंभीर हो गए। कुछ रुक कर उन्होने उत्तर दिया, “आने वाले युग के लिये इस बात का महत्व नहीं होगा कि श्रीअरविंद ने मानवीय रूप में क्या किया और कैसे व्यवहार किया । महत्व इस बात का है कि उनके अंदर भगवान कैसे अभिव्यक्त हुए, उन्होने भगवान के रूप में मानवता के लिये क्या किया, संसार के लिये क्या किया तथा किस प्रकार भागवत रूप में लीला की । ”
संदर्भ : श्रीअरविंद एवं श्रीमाँ की दिव्य लीला
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