भगवान के दो रूप


श्रीअरविंद और श्रीमाँ

… हमारे कहने का यह अभिप्राय है कि संग्राम और विनाश ही जीवन के अथ और इति नहीं हैं, कि सामञ्जस्य संग्राम से बड़ी चीज है, कि मृत्यु की अपेक्षा प्रेम भगवान् का अधिक अभिव्यक्त रूप है और यह भी कि हमें भौतिक बल का स्थान आत्मबल को, युद्ध का स्थान शान्ति को, फूट का स्थान एकत्व को, निगलने का स्थान प्रेम को, अहंभाव का स्थान विश्वभाव को, मृत्यु का स्थान अमर जीवन को देना चाहिये। वस्तुतः भगवान केवल हारकर्ता ही नहीं बल्कि सभी प्राणियों के मित्र हैं: केवल विश्व के त्रिदेव ही नहीं बल्कि परात्पर पुरुष हैं, करालवदना काली भी प्रेममयी और मंगलदायिनी माता ही हैं; कुरुक्षेत्र के स्वामी दिव्य सखा और सारथी हैं, सभी प्राणियों के मनमोहन हैं, अवतार श्रीकृष्ण हैं। इसमें सन्देह नहीं कि जगत् के इस संग्राम, संघर्ष और समस्त अस्तव्यस्तता में से होकर प्रभु हमें उस परात्पर की ओर ही बढ़ा रहे हैं जिन्हें भले अभी हम देख न पायें, लेकिन लक्ष्य पर पहुंचने के बाद हम पायेंगे कि आरम्भ से ही हमारा हृदय इसी की तो मनोकामना कर रहा है। लेकिन, उस पथ पर चलते हुए हमें जगत् को जैसा वह है, वैसा ही लेना होगा। और जैसे-जैसे, जहां-जहां से प्रभु हमें ले चलें, उन पर पूरा भरोसा रख कर अगर हम उनके संग-संग चलते चलें तो मार्ग तथा लक्ष्य स्वयं प्रत्यक्ष हो जायेंगे। हमें कुरुक्षेत्र को मानना होगा, मृत्यु से होकर जीवन का जो विधान है उसे स्वीकारना होगा, तभी हम अमर जीवन के पथ का पता पा सकेंगे। हमें अपनी आंखें खोल कर–अर्जुन की अपेक्षा कम व्यथित दष्टि से ईश्वर के कालरूप के दर्शन करने होंगे और इस विश्व-संहार को अस्वीकार करने, इससे घृणा करने या इससे डर कर भागने की प्रवुत्ति को छोड देना होगा।

सन्दर्भ : गीता समन्वय 


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