सच पूछो तो तुम अपने मन से भगवान् और उनके कार्य को समझने की आशा नहीं कर सकते, बल्कि अपने अंदर एक सच्ची और दिव्य चेतना के वर्द्धित होने पर तुम समझ सकते हो। यदि भगवान् अपनी समस्त महिमा के साथ अपने को अनावृत और प्रकाशित करें तो मन संभवतः एक उपस्थिति को अनुभव कर सकता है, पर वह उसके कार्य या उसके स्वभाव को नहीं समझ सकेगा। वास्तव में तुम अपने अनुभव और अपने अंदर उस महत्तर चेतना के जन्म और विकास के अनुपात में ही भगवान् को देखोगे और उनके कार्य को, उनके पार्थिव छद्मवेशों के पीछे भी, समझोगे।
सन्दर्भ : श्रीअरविन्द के पत्र (भाग-१)
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…