अगर मैं अपने-आपको इस बाहरी जगत् से एकदम अलग कर सकूँ, अगर मैं बिलकुल अकेला रह सकूँ तो मैं इस अवसाद को पूरी तरह वश में कर सकूँगा, जिसे अभी तक मैं झटक तक नहीं सकता।
यह बिलकुल भी ठीक नहीं है; सभी एकान्तवासियों, सभी तपस्वियों का अनुभव निर्विवाद रूप से इसके विपरीत प्रमाणित करता है। कठिनाई अपने अन्दर से, स्वयं अपनी प्रकृति से आती है और तुम जहां भी जाओ, जैसी भी परिस्थिति में क्यों न होओ, उसे अपने साथ लिये रहते हो। उनमें से बाहर निकलने का बस एक ही उपाय है-वह है कठिनाई पर विजय पाना, अपनी निम्न प्रकृति को जीतना। क्या यह अकेले में करने की अपेक्षा, जहां मार्ग पर प्रकाश डालने वाला, अनिश्चित पगों को राह दिखाने
वाला कोई न हो, यहां ज्यादा आसान नहीं है जहां ठोस और साकार सहायता प्राप्त है?
संदर्भ : श्रीमातृवाणी (खण्ड-१६)
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