… इन परिवेशों में और इस तरह की बातचीत के दौरान जो चैत्य आत्म-संयम वाञ्छनीय है उसमें दूसरी चीज़ों के साथ-साथ निम्नलिखित
बातों का भी ध्यान रखना चाहिये:
१. बिना सोचे-विचारे, आवेश में आकर अपनी बात को मनवाने के लिए उतारू न होना, बल्कि हमेशा सचेतन संयम के साथ, और जो कुछ
ज़रूरी और सहायक हो, वही बोलना।
२. हर तरह की बहस, वाद-विवाद, छोटे-मोटे झगड़ों, जोशपूर्ण बातचीत इत्यादि से बचने के लिए, जो बात कहनी है उसे शान्ति से कह कर, बात को वहीं छोड़ देना। तुम्हारी तरफ़ से यह आग्रह भी नहीं होना चाहिये कि तुम सही हो और दूसरे ग़लत, बल्कि विषय के सत्य को ध्यान में रखते हए तुम्हें अपने मत और विचार का योगदान देना चाहिये। इस चर्चा में ‘क’ द्वारा कथित बातें जो तुमने मुझे बतायीं उनमें अपनी सच्चाई है, और वहीं जो तुमने कहा वह भी सच है। तो अगर दोनों में सच्चाई है तो बहस का प्रश्न ही कहाँ से खड़ा हो गया भला?
३. तुम्हारी बात का लहजा और तुम्हारे शब्द शान्त और अचञ्चल हों और अपनी बात को मनवाने का आग्रह कभी न करो।
४. गर्मजोशी में आकर अगर दूसरे झगड़ें और बहस पर उतर आयें, फिर भी तुम अपना आपा न खोओ। शान्त और अचञ्चल बने रहो और खुद तुम तभी मुँह खोलो जब तुम्हारा बोलना चीज़ों को सुधारने में सहायक हो।
५. अगर दूसरों के बारे में गपशप और कड़ी आलोचनाएँ (विशेष रूप से साधकों के बारे में) चल रही हों तो उसमें भाग मत लो-क्योंकि
ये चीजें किसी भी हालत में लाभकारी नहीं होतीं, ये तो बस चेतना को उसके उच्चतर स्तर से नीचे ले आती हैं।
६. उन सभी चीज़ों से बचो जो दूसरों को चोट या ठेस पहँचायें।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
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