जब तुम अपना प्रेम किसी और मनुष्य को देते हो तो प्राय: पहली भूल यह होती है कि तुम उस व्यक्ति से भी प्रेम चाहते हो, उसके तरीके और स्वभाव के अनुसार नहीं, बल्कि अपने ही तरीके और अपनी कामना की पूर्ति के लिए । समस्त मानव दुःखों और कष्टों का मुख्य कारण यही है ।
प्रेम करने का अर्थ है, मोल-तोल का भाव किये बिना अपने-आपको देना-अन्यथा वह प्रेम नहीं होता । लेकिन इसे विरले ही समझ सकते है और उनमें भी विरले ही व्यवहार में ला सकते है। और परिणाम दुःखद होते है ।
जब कोई प्रगति करनी हो तो तुम्हें बस उसके लिए काम में लग जाना चाहिये, यह बहाना बनाये बिना कि और लोग ऐसा नहीं कर रहे।
हर एक पहले अपने लिए जिम्मेदार है; और अगर तुम औरों की सहायता करने की अभीप्सा रखते हो तो तुम जैसा होना चाहिए उसका उदाहरण बन कर ही सबसे अधिक प्रभावकारी ढंग से उन्हें सहायता दे सकते हो।
और फिर भागवत कृपा तो हमेशा ही है जो अद्भुत रूप से उन सबके लिए प्रभावकारी है जो सच्चे और निष्कपट है ।
सन्दर्भ : श्रीमातृवाणी (खण्ड-१७)
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