बस, इसी श्रद्धा को तुम्हें अपने अन्दर विकसित करने की आवश्यकता है-युक्ति-तर्क और साधारण समझ के साथ मेल खाने वाली यह श्रद्धा उत्पन्न करने की आवश्यकता है कि यदि भगवान् का अस्तित्व है और उन्होंने ही तुम्हें इस पथ पर बुलाया है (जैसा कि स्पष्ट है), तो निश्चय ही पीछे की ओर तथा आदि से अन्त तक हमेशा भागवत पथ-प्रदर्शन मौजूद रहेगा और सभी कठिनाइयों के बावजद तुमअपने लक्ष्य पर अवश्य पहंचोगे। असफलता का सुझाव देने वाली विरोधी शक्तियों की वाणियों को अथवा उनको प्रतिध्वनित करने वाली अधीरता की, प्राणिक जल्दबाजी की वाणियों को नहीं सुनना चाहिये। इस बात पर विश्वास नहीं करना चाहिये कि चूंकि महान् कठिनाइयां मौजूद हैं इसलिए सफलता नहीं मिल सकती अथवा जब अभी तक भगवान् नहीं दिखायी दिये तब वे कभी दिखायी नहीं देंगे, बल्कि इस मनोभाव को ग्रहण करना चाहिये, जिसे किसी महान् और कठिन लक्ष्य पर अपना मन एकाग्र करने पर प्रत्येक व्यक्ति ही ग्रहण करता और कहता है कि “सभी कठिनाइयों के होते हुए भी मैं तब तक प्रयत्न करता रहूंगा जब तक कि सफल नहीं हो जाता।” और जिसमें भगवान् में विश्वास रखने वाला इतना और जोड़ देता है कि “भगवान् हैं और उन्हें पाने का मेरा प्रयास कभी विफल नहीं हो सकता। जब तक मैं उन्हें पा नहीं लेता तब तक मैं प्रत्येक चीज के अन्दर से होता हुआ आगे बढ़ता रहूंगा।”
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (भाग-२)
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