पूर्णतः सच्चा होनेके लिये यह आवश्यक है कि कोई पसंदगी, कोई कामना, कोई आकर्षण, कोई नापसंदगी, कोई सहानुभूति या विद्वेष, कोई आसक्ति, कोई विकर्षण न हो। हमें वस्तुओंका एक पूर्ण, सर्वांगीण अंतर्दर्शन प्राप्त हो, जिसमें प्रत्येक वस्तु अपने स्थानपर हो और सभी वस्तुओंके प्रति हमारा एक ही मनोभाव : सत्य दर्शनका मनोभाव हो। यह कार्यक्रम किसी मनुष्यके लिये पूरा करना स्पष्ट ही बहुत कठिन है। जबतक वह अपनेको दिव्य रूपमें रूपांतरित करने का निश्चय नहीं कर लेता, उसका अपने अंदरकी इन सभी विपरीत वस्तुओंसे मुक्त होना लगभग असंभव प्रतीत होता है। और फिर भी, जबतक वह अपने अंदर उन्हें वहन करता है, वह पूर्ण रूप से सत्यनिष्ठ नहीं हो सकता। अपने-आप ही मानसिक, प्राणिक और यहां तक कि भौतिक क्रियावली मिथ्या बन जाती है। मैं भौतिकपर जोर दे रही हूं, क्योंकि इंद्रियोंकी क्रिया भी दोषपूर्ण हो जाती है : जबतक मनुष्यमें कोई पसंदगी होती है, वह वस्तुओंको उनके सत्य रूपमें नहीं देखता, नहीं सुनता, नहीं चखता, नहीं अनुभव करता। जबतक ऐसी चीजें हैं जो तुम्हें अच्छी लगती हैं और ऐसी चीजें हैं जो अच्छी नहीं लगतीं, जबतक तुम किन्हीं विशेष वस्तुओंसे आकर्षित होते और दूसरी वस्तुओंसे विकर्षण अनुभव करते हो, तुम वस्तुओंको उनके सत्य-स्वरूपमें नहीं देख सकते; तुम उन्हें अपनी प्रतिक्रियाओं, अपनी पसंदगी या नापसंदगीमेंसे देखते हो। इंद्रियां माध्यम हैं जो अव्यवस्थित हो जाती है, ठीक जिस तरह संवेदनाएं, हृद्गत भावनाएं और विचार हो जाते हैं। परिणामस्वरूप तुम जो कुछ देखते, जो कुछ स्पर्श करते, जो कुछ अनुभव करते और सोचते हो उसके बारेमें निस्संदिग्ध होने के लिये तुम्हारे अंदर एक प्रकारकी पूर्ण अनासक्ति होनी चाहिये ; और यह, बहुत स्पष्ट रूपमें, कोई आसान काम नहीं है। परंतु उस क्षणतक तुम्हारा ज्ञान पूरी तरह सही नहीं हो सकता और इस कारण वह सच्चा नहीं है।
सन्दर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५६
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