यह कहा जा सकता है कि मैं पूर्णयोग कर रहा हूँ ?
प्रत्येक व्यक्ति जो श्रीमाँ की ओर मुड़ा है, हमारा योग कर रहा है । यह मान लेना एक बड़ी भूल होगी कि कोई पूर्णयोग “कर” सकता है, – अर्थात उसे वहन कर सकता और योग के प्रत्येक पक्ष को अपने स्वयं के प्रयास से सम्पन्न कर सकता है । कोई मानव सत्ता उसे नहीं कर सकती । हमें जो करना है वह यह है कि स्वयं को श्रीमाँ के हाथों में सौंप दे और सेवा, भक्ति तथा अभीप्सा के द्वारा अपने – आपको उनके प्रति उद्घाटित कर दें; श्रीमाँ अपने प्रकाश और अपनी शक्ति के द्वारा हमारे अंदर कार्य करती है ताकि साधना हो। यह भी एक भूल है कि एक महान पूर्णयोगी बनने या एक अतिमानसिक सत्ता बनने कि उत्कंठा रखी जाये और अपने-आपसे पूछा जाये कि उस ओर मैं कितना बढ़ा। उचित मनोभाव तो यह है कि हम समर्पित रहें, स्वयं को श्रीमाँ को दे दें और इस बात की इच्छा करें कि वे जैसा चाहे तुम वैसे ही बनो। बाकी सभी निश्चय श्रीमाँ के ऊपर निर्भर रहें और वे ही तुम्हारें अंदर क्रिया करें ।
संदर्भ : माताजी के विषय में
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