पूर्णयोग का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति इस भौतिक जगत् को सदा के लिए इसके भाग्य पर छोड़ कर इससे भाग खड़ा हो, न ही यह योग भौतिक जीवन को, जिस रूप में यह है, बिना किसी निश्चयात्मक परिवर्तन की आशा के स्वीकार ही करता है। यह जगत् को भागवत इच्छा की अन्तिम अभिव्यक्ति के रूप में अंगीकार नहीं करता।
पूर्णयोग का ध्येय है, चेतना की सब सीढ़ियों पर, साधारण मानसिक चेतना से लेकर अतिमानसिक और भागवत चेतना तक, आरोहण करना और जब यह आरोहण पूरा हो जाये तो वापिस इस जड़-जगत् की ओर लौटना और इस प्रकार से प्राप्त अतिमानसिक शक्ति और चेतना को इसमें सञ्चारित करना, ताकि यह पृथ्वी क्रमशः अतिमानसिक और दिव्य जगत् में रूपान्तरित हो जाये।
पूर्णयोग विशेषकर उन लोगों के लिए अभिप्रेत होता है जिन्होंने वह सब कुछ पा लिया है जिसे मनुष्य प्राप्त कर सकता है, लेकिन फिर भी सन्तुष्ट नहीं है, क्योंकि वे जीवन से उस चीज़ की माँग करते हैं जो वह नहीं दे सकता। जो अज्ञात को जानने के लिए आतुर हैं, जो पूर्णता के लिए अभीप्सा करते हैं, जो अपने से कष्टकर प्रश्न पूछते हैं और जिनका उन्हें कोई निश्चित उत्तर नहीं मिलता, ठीक वही लोग पूर्णयोग के लिए तैयार कहे जा सकते हैं।
संदर्भ : पथ पर
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