अधिकांश लोग यह चाहते हैं कि बातें उनकी इच्छा के अनुसार किसी बाधा के बिना या निरपेक्ष रूप में होनी चाहिये। पूर्णता की चर्चा करना निरर्थक है। जब प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये स्वयं एक कानून बन जाता है तो उसे पूर्णता नहीं कहते। पूर्णता कामनाओं का परित्याग करने तथा एक उच्चतर संकल्प-शक्ति के प्रति आत्मसमर्पण करने पर आती है।
सन्दर्भ : श्रीअरविन्द के पत्र (भाग-२)
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिनमें…
.... मनुष्य का कर्म एक ऐसी चीज़ है जो कठिनाइयों और परेशानियों से भरी हुई…
अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…