अधिकांश लोग यह चाहते हैं कि बातें उनकी इच्छा के अनुसार किसी बाधा के बिना या निरपेक्ष रूप में होनी चाहिये। पूर्णता की चर्चा करना निरर्थक है। जब प्रत्येक व्यक्ति अपने लिये स्वयं एक कानून बन जाता है तो उसे पूर्णता नहीं कहते। पूर्णता कामनाओं का परित्याग करने तथा एक उच्चतर संकल्प-शक्ति के प्रति आत्मसमर्पण करने पर आती है।

सन्दर्भ : श्रीअरविन्द के पत्र (भाग-२)

 

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