पहली चीज़ है अपने-आपको विचार, भाव और क्रिया में विश्व के केंद्र में न रखना, मानों उसका अस्तित्व तुम्हारे लिए ही है – तुम विश्व के एक भाग हो। तुम उसके साथ एक हो सकते हो, परंतु एकमात्र परम प्रभु ही केंद्र हैं क्योंकि वे सबका अतिक्रमण करते और उन्हें समाये हुए हैं ।
संदर्भ : श्रीमातृवाणी (खंड-१६)
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