परम की दृष्टि


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

जानते हो, जब मैं बहुत तीव्रता के साथ देखती और एकाग्र होती हूं तो देखने वाली मैं नहीं होती बल्कि मेरी आंखों के माध्यम से ‘परम प्रभु’ देखते हैं; तब मैं किसी बाहरी रूप को, किसी भौतिक चीज को नहीं देखती, मेरी दृष्टि से सब कुछ ओझल हो जाता है, रह जाती है केवल वस्तुओं की अन्तरात्मा जिसके साथ मैं सम्पर्क-संवाद करती हूं और वह एक पल में मुझे सब कुछ बता देती है। यह कितना स्पष्ट और यथार्थ होता है, पूर्ण ज्ञान लिये निश्चित, सहज और सच्चा। ‘उनकी’ दृष्टि से मैं अपने सामने ऐसी चीजें गुजरते हुए देखती हूं जिनका उन चीजों से कोई यथार्थ साम्य नहीं होता जिन्हें मैं साधारणतया देखती हूं। लेकिन वे अपने-आपमें वास्तविक होती हैं और होती हैं ‘शाश्वत के संकल्प’ से धारित। यह दृष्टि घटनाओं का रास्ता रोक सकती है, एक अदृश्य शक्ति के द्वारा भाग्य बदल सकती है, उन शक्तियों को समाप्त कर सकती है जो विरोध करती हैं, ‘नयी सृष्टि’ के लिए जो आवश्यक हो उसे सृष्ट कर सकती है और भगवान् के साथ सहयोग देने के लिए जिसका रूपान्तर करने की जरूरत हो उसे संजो कर रख सकती है।

यह दृष्टि ‘परम’ की दृष्टि है जो उस ‘चेतना’ के साथ अन्तर्निर्भरता से जुड़ी हुई है, घुल-मिल गयी है जो जीवन के ‘सौन्दर्य’ और ‘आनन्द’ को बिना विकृत किये प्रतिबिम्बित करती है। इस दृष्टि से बहता है जीवन का ‘आनन्द’, ‘शाश्वत सत्य’ की अभिव्यक्ति की शक्ति, भागवत ‘करुणा’, सम्पूर्ण ‘मिलन’ का प्रेम, असीम ‘दयालुता’ और ‘भगवान्’ का कोप भी।

संदर्भ : ‘परम’ (श्रीमाँ का मोना सरकार के साथ वार्तालाप)


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