न कुछ शुभ,न कुछ अशुभ


श्रीअरविंद आश्रम की श्री माँ

किसी भी ग़लत गति को भूमिगत की जगह उसे निवेदित कर देना चाहिये। उस चीज़ को, स्वयं उस गति को प्रकाश के सामने प्रक्षिप्त करना चाहिये..। साधारणत: वह छटपटाती और इंकार करती है । लेकिन (माताजी हंसते हुए) यही एकमात्र उपाय है। इसीलिये यह चेतना इतनी मूल्यवान है.. ।

हाँ, जो चीज़ दमन को लाती है वह है भले-बुरे की धारणा, जो बुरा समझा जाता है उसके लिये उस तरह का तिरस्कार या लज्जा, और तब तुम इस तरह करते हो (पीछे हटने की मुद्रा), तुम उसे देखना नहीं चाहते, तुम नहीं चाहते की कि वह चीज़ वहाँ रहें। होना यह चाहिये… पहली चीज – सबसे पहली चीज हमें यह जाननी  है कि हमारी चेतना की दुर्बलता ही यह विभाजन करती है और एक और ‘चेतना’ है, ( अब मुझे इसका विश्वास है) जिसमें, यह भेद नहीं है, जिसमें, जिसे हम ‘अशुभ’ कहते हैं, वह भी उतना हीं जरूरी है जितना वह जिसे हम ‘शुभ’ कहते है। अगर हम अपने संवेदन को प्रक्षिप्त कर सकें — अपनी क्रिया को या अपने बोध कों – उस प्रकाश में प्रक्षिप्त कर सकें तो उससे उपचार मिल जायगा।’ उसे नष्ट करने लायक चीज समझ कर उसका दमन करने या त्याग करने की जगह (उसे नष्ट नहीं किया जा सकता!), उसे प्रकाश में प्रक्षिप्त करना चाहिये ।

इसके कारण मुझे कई दिनों तक एक बड़ी मजेदार अनुभूति होती रही : अमुक चीजों को (जिन्हें तुम स्वीकार नहीं करते और जो सत्ता में असंतुलन पैदा करती हैं), उन्हें अपने से दूर फेंकने की कोशिश करने की जगह, उन्हें स्वीकार कर लो, अपने अंश के रूप में स्वीकार कर लो… (माताजी अपने हाथ फैलाती है) और उन्हें निवेदित कर दो । वे निवेदित होना नहीं चाहती, लेकिन उन्हें बाधित करने का एक तरीका है  : हम जिस अनुपात में अपने अंदर से अस्वीकृति की भावना को कम कर सकेंगे उसी अनुपात में उनका प्रतिरोध घटता जायगा । अगर हम इस अस्वीकृति के भाव की जगह उच्चतर समझ को ला सकें तो हमें सफलता मिलती है । यह बहुत ज्यादा आसान है ।

मेरा ख्याल है कि यही है। वे सब गतियां, सभी, जो तुम्हें नीचे की ओर घसीटती है उन सबका उच्चतर समझ के साथ संपर्क करवाना चाहिये ।

संदर्भ : पथ पर 


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