रात को जागते रहने की कोशिश करना ठीक मार्ग नहीं है; आवश्यक निद्रा का निग्रह करने से शरीर तामसिक हो जाता है और जाग्रत काल के समय जिस एकाग्रता की आवश्यकता होती है उसके लिए असमर्थ हो जाता है । उचित मार्ग निद्रा का निग्रह करना नहीं बल्कि उसके रुपान्तरित करना है; विशेषतः यह सीख लेना है कि निद्रा लेते हुये ही आधिकाधिक सचेतन कैसे रहा जाये। ऐसा करने से निद्रा चेतना की एक आंतरिक अवस्था में परिणत हो जाती है, जिस अवस्था में साधना ठीक उसी प्रकार जारी रह सकती है जैसी कि जाग्रत अवस्था में, और साथ-ही-साथ साधक इस योग्य हो जाता है कि चेतना के भौतिक स्तर के अतिरिक्त अन्य स्तरों में भी वह प्रवेश कर सके तथा उपयोग में आने योग्य अनुभूतियों के एक अतिविशाल क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित कर सके ।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…