मन हमेशा सक्रिय रहता है, किन्तु हमलोग पूरी तरह से यह नहीं देखते कि यह क्या कर रहा है, पर हम अपने-आपको सतत सोच-विचार के प्रवाह में बहने देते है। जब हम एकाग्र होने का प्रयास करते हैं, तब स्वनिर्मित यान्त्रिक चिन्तन का यह प्रवाह हमारे अवलोकन में स्पष्ट हो जाता है। यह योग के लिए प्रयास में पहली सामान्य बाधा है (दूसरी बाधा ध्यान के समय नींद है)।
सबसे अच्छा तो यह होगा कि यह अनुभव करो कि विचार का प्रवाह तुम स्वयं नहीं हो, वह तुम नहीं हो जो सोच रहा है, बल्कि वह विचार है। जो तुम्हारे मन में चल रहा है। प्रकृति ही अपनी विचार-ऊर्जा से तुम्हारे अन्दर विचार का यह सारा भंवर उत्पन्न कर रही है, पुरुष के ऊपर आरोपित कर रही है। तुम्हें पुरुष के रूप में पीछे हट कर, साक्षी के समान क्रिया को देखना होगा, और इसके साथ अपने-आपको तदात्म करने से इन्कार करना होगा। इसके बाद दूसरी चीज है विचारों पर नियन्त्रण करना और उन्हें अस्वीकार करने का अभ्यास करना-यद्यपि कभी-कभी अनासक्ति के कारण ध्यान के समय विचार की आदत झड़ जाती है अथवा क्षीण हो जाती है, और पर्याप्त नीरवता या कम-से-कम निश्चलता आ जाती है, जिससे उन विचारों को अस्वीकार करना आसान हो जाता है जो ध्यान के विषय पर आकर चिपक जाते हैं। यदि हम इस बात से सजग हो जायें कि विचार बाहर से, वैश्व ‘प्रकृति’ से आते हैं, तब मन में पहुंचने से पहले हम उन्हें निकाल बाहर कर सकते हैं। इस तरह अन्त में मन नीरव बन जाता है।
यदि इनमें से एक भी नहीं घटित होता, तब अस्वीकार करने का सतत अभ्यास आवश्यक हो जाता है-विचार के साथ संघर्ष अथवा
कुश्ती नहीं करनी चाहिये, बल्कि केवल चुपचाप आत्म-पृथक्करण और अस्वीकरण होना चाहिये। सफलता तुरन्त नहीं मिलती, किन्तु यदि सहमति देने से निरन्तर इन्कार किया जाये तो यान्त्रिक भंवर अन्ततः बन्द हो जाता है और समाप्त होने लगता है। तब, हम जब चाहें आन्तरिक निश्चलता अथवा नीरवता प्राप्त कर सकते हैं। यह ध्यान में रखना चाहिये कि यौगिक प्रक्रियाओं का परिणाम, दुर्लभ अपवादों को छोड़ कर, तुरन्त नहीं मिलता और इसलिए हमें जब तक परिणाम दिखायी न पड़े तब तक संकल्पपूर्वक धैर्य रखना होगा। कभी कभी यदि बाहरी प्रकृति में बहुत विरोध हो तो परिणाम आने में बहुत
विलम्ब हो जाता है।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र
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