मूलतः धम्मपद के सूत्रों से यह शिक्षा मिलती है कि व्यक्ति के लिए दिखायी देने की अपेक्षा होना अधिक आवश्यक है। उसे जीना चाहिये न कि दिखावा करना, दूसरों को यह दिखाने की अपेक्षा कि वह कुछ चरितार्थ कर रहा है, यह कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है कि वह वस्तु को उसके समग्रऔर पूर्ण रूप में सच्चाई के साथ चरितार्थ करे!
यहाँ भी वही बात है : जब व्यक्ति जो कुछ कर रहा है उसे बताने की आवश्यकता अनुभव करता है; तो वह अपने आधे कर्म को नष्ट कर डालता है। पर साथ ही यह तुम्हें यह देखने और जानने में सहायता प्रदान करता है कि तुम ठीक-ठीक किस बिन्दु पर हो।
यह बुद्ध की बुद्धिमत्ता थी जब उन्होंने कहा था : “मध्यम मार्ग”, न बहुत अधिक यह, न बहुत अधिक वह। न इसमें गिरो, न उसमें गिरो-प्रत्येक वस्तु का थोड़ा-थोड़ा और एक सन्तुलित मार्ग… किन्तु “विशुद्ध”।
विशुद्धता और सत्यनिष्ठा एक ही हैं।
सन्दर्भ : विचार और सूत्र के प्रसंग में
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