एक बार जब गार्गी अपने जन्मदिन पर श्रीमाँ को प्रणाम करने गयी तब वह बोल उठी, “माँ, मैं आपसे सतत और सचेतन रूप से एक होना चाहती हूँ। ” माँ ने विस्मय से कहा, “दोनों?” “हाँ माँ।” श्रीमाँ ने उसका मुख अपने दोनों हाथों में लेकर उसको माथे पर दो बार चूमा ।
संदर्भ : श्रीअरविंद एवं श्रीमाँ की दिव्य लीला
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…