दूसरें लोग आईना है


श्रीअरविंद आश्रम की श्री माँ

जब कोई बात दूसरे व्यक्ति के अन्दर तुम्हें एकदम अवांछनीय या हास्यास्पद प्रतीत हो — जब तुम सोचो : ”यह कैसी बात है! वह तो वैसा है, वह उस तरह का आचरण करता है, वह ऐसी बातें कहता है, वह ऐसा करता है” –, तब तुम्हें अपने-आपसे कहना चाहिये : ”हां, हां, परन्तु मै भी शायद बिना. जाने वही चीज करता हूँ। अच्छा हो कि में दूसरे व्यक्ति की आलोचना करने से पहले सर्वप्रथम स्वयं अपने अन्दर दृष्टि डालूं ताकि मैं नि:संदिग्ध हो सकूं कि मैं भी मात्र थोड़े-से अन्तर के साथ, वही चीज नहीं करता।” और , जब-जब तुम्हें दूसरे व्यक्ति का आचरण बुरा लगे तब-तब यदि तुम इसे सामान्य बुद्धि ओर समझदारी के साथ कर सको तो तुम देखोगे कि जीवन में दूसरों के साथ का सम्बन्ध मानों एक आईना है जो हमारे सामने इसलिये रखा गया है कि हम अधिक आसानी से और अधिक सूक्ष्म दृष्टि से उस दुर्बलता को देख सकें जिसे हम अपने अन्दर वहन करते है ।

संदर्भ : विचार और सूत्र के प्रसंग में 


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