तुम जो करते हो उसे बिना रुचि के करने से थकान आती है । तुम जो कुछ करो उसमें रुचि ले सकते हो बशर्ते कि तुम उसे प्रगति के साधन के रूप में लो; तुम जो कुछ करो उसे तुम्हें अच्छे-से-अच्छा करने की कोशिश करनी चाहिये । प्रगति का संकल्प हमेशा होना चाहिये और तब तुम जो कुछ करते हो उसमें रस लेते हो, चाहे वह कुछ भी हो । अगर तुम उसे इस दृष्टिकोण से लो तो एकदम नगण्य कार्य भी रुचिकर हो सकता है ।
और बहुत अधिक आकर्षक ओर महत्त्वपूर्ण क्रिया भी तुम्हारे लिए अपनी सारी रुचि खो बैठती है अगर उसे करते समय किसी आदर्श पूर्णता के प्रति प्रगति करने का तुम्हारे अन्दर संकल्प न हो ।
संदर्भ : माताजी के वचन ( भाग-२ )
जो अपने हृदय के अन्दर सुनना जानता है उससे सारी सृष्टि भगवान् की बातें करती…
‘भागवत कृपा’ के सामने कौन योग्य है और कौन अयोग्य? सभी तो उसी एक दिव्य…
सच्चा आराम आन्तरिक जीवन में होता है, जिसके आधार में होती है शांति, नीरवता तथा…