प्रातः पुष्प वितरण के समय श्रीमाँ को लगभग दो घंटे एक ही स्थान पर खड़े रहना पड़ता था। एक दिन एक साधिका प्रीति दास गुप्ता की दृष्टि श्रीमाँ के चरणों की ओर गयी जो बहुत सूजे हुए थे। उन्होने श्रीमाँ का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया। श्रीमाँ ने मुस्कुराकर कहा, “मुझे कई घंटे एक ही स्थान पर खड़े रहना पड़ता है, अतः रक्तसंचार रुक जाता है और पाँव सूज जाते हैं। किन्तु यह तो कुछ नहीं, मेरे हाथ देखो,” यह कहकर श्रीमाँ ने बाँहें फैलाकर साधिका को अपने हाथ दिखाये। उनपर नील पड़े हुए थे और खरोंचे आ गयी थी। प्रीति श्रीमाँ के कोमल करों की यह दुर्दशा देखकर विह्वल हो गईं। उन्होने कहा, “माँ, मैं आश्रम में सबसे कह दूँगी कि कोई भी आपके हाथ कसकर न पकड़े और न ही उन्हें दबाए।”
श्रीमाँ ने प्रीति को आज्ञा दी कि वे किसी से कुछ न कहें। उन्होने प्रीति को समझाया, “मेरे बच्चे प्रेम और भक्ति से मेरे हाथों को पकड़ते और दबाते हैं। यदि तुम कहोगी तो वे संकोच करेंगे।”
हाय! वे भक्तगण यह भूल जाते थे कि जब कई सौ व्यक्ति दिन में कई बार उनके सुकुमार हाथों को दबाते थे तब श्रीमाँ को कितना कष्ट होता होगा। श्रीमाँ यह सब चुपचाप सहन करती थीं जिससे उनके बच्चो का उत्साह और उमंग कम न हो ।
(यह कथा मुझे प्रीति दास गुप्ता ने सुनाई थी।)
संदर्भ : श्रीअरविंद और श्रीमाँ की दिव्य लीला
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