एक ऐसा कार्य जिसका लक्ष्य है पार्थिव प्रगति, तब तक नहीं शुरू किया जा सकता जब तक उसे भगवान् की स्वीकृति और सहायता प्राप्त न हो।
वह तब तक नहीं टिक सकता जब तक ऐसी निरन्तर भौतिक वृद्धि न हो जो दिव्य प्रकृति की इच्छा को सन्तुष्ट करे।
उसे मानवीय दुर्भावना के सिवा कुछ भी समय से पहले नष्ट नहीं कर सकता। यह दुर्भावना ही भगवान् की विरोधी शक्तियों के यन्त्र का काम करती है जो भगवान् की अभिव्यक्ति और पृथ्वी के रूपान्तर में यथासम्भव देर लगाना चाहती हैं।
सन्दर्भ : माताजी के वचन (भाग -३)
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…