… उन दिनों क्या हुआ करता था जब छापेखाने नहीं थे, पुस्तकें नहीं थी और ज्ञान केवल गुरु या दीक्षित व्यक्ति के पास ही हुआ करता था और गुरु सुपात्र के सिवाय किसी को नहीं देता था; और उसकी दृष्टि में, सामान्यतः “सुपात्र” होने का अर्थ था जो कुछ सीखा हो उसे जीवन में उतारना। वह तुम्हें एक सत्य देता और आशा करता था कि तुम उस पर आचरण करोगे। और जब तुम उसे आचरण में ले आते तभी वह अगला ज्ञान देने के लिए राजी होता।
अब चीजें बिलकुल और तरह से होती हैं। सब कोई और जो चाहे पुस्तक प्राप्त कर सकता और उसे पूरे-का-पूरा बांच सकता है और उस पर आचरण करने या न करने के बारे में अपनी मर्जी का मालिक है। यह सब ठीक है, परन्तु इससे बहुतों के मन में कुछ भ्रान्ति पैदा हो जाती है। जो लोग बहुत-सी पुस्तकें पढ़ लेते हैं वे सोचते हैं कि इतना पर्याप्त है और चूंकि उन्होंने बहुत पढ़ लिया है इसलिए अब उनके साथ सब प्रकार की चमत्कारिक बातें होनी चाहियें, उन्हें उस पर आचरण करने का कष्ट उठाने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए वे अधीर हो जाते हैं और कहते हैं : “यह कैसी बात है कि मैंने इतना सब पढ़ा है और फिर भी मैं वह-का वही हं, मेरी कठिनाइयां भी वही हैं, कोई सिद्धि भी नहीं मिली?” ऐसी टिप्पणियां मैं प्रायः ही सुनती हूं। वे एक महत्त्वपूर्ण बात भूल जाते हैं कि उन्होंने जो ज्ञान-बौद्धिक, मानसिक ज्ञान-प्राप्त किया है वह अधिकारी होने से पहले ही, अर्थात् पढ़े हुए ज्ञान को आचरण में लाने से पहले ही प्राप्त कर लिया है, और इससे स्वभावतः उनकी चेतना की स्थिति और विचारों के बीच एक असंगति है, वे इस ज्ञान की चर्चा तो आराम से कर सकते हैं, लेकिन उन्होंने इस पर आचरण नहीं किया।…
तो व्यक्ति को अधीर नहीं होना चाहिये, बल्कि यह समझना चाहिये कि सच्चे रूप में ज्ञान पाने के लिए, वह चाहे जो भी हो, उसे व्यवहार में लाना जरूरी है, अर्थात् अपनी प्रकृति पर प्रभुत्व पाना जरूरी है ताकि तुम उस ज्ञान को क्रिया में अभिव्यक्त कर सको।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५७-१९५८
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