क्या मनोरंजन अनिवार्य है ?


श्रीअरविंद आश्रम की श्रीमाँ

आमतौर पर यह माना जाता है कि शिक्षा की प्रक्रिया में हल्की, मनोरञ्जक बल्कि तुच्छ कृतियों को भी स्थान मिलना चाहिए ताकि प्रयास का दबाव कम पड़े और केवल बच्चों को ही नहीं, बड़ों को भी कुछ आसानी हो। एक दृष्टिकोण से यह सच है, लेकिन दुर्भाग्यवश इस मान्यता के कारण चीजों की एक ऐसी पूरी-की-पूरी श्रेणी को आयात करने का बहाना मिल गया है जो मानव प्रकृति में जो कुछ गंवारू, भद्दा और निम्न कोटि का है उसके खिलने से कम नहीं है। इस मान्यता में अत्यन्त जघन्य प्रवृत्तियों तथा अति हीन रुचियों को अनिवार्य आवश्यकता के रूप में अपना प्रदर्शन करने और अपने-आपको स्थापित करने का अच्छा बहाना मिल जाता है। लेकिन बात ऐसी नहीं है; आदमी कामुक हुए बिना विश्राम कर सकता है, वह लम्पट बने बिना भी अपने-आपको आराम दे सकता है। वह विश्राम कर सकता है, पर अपनी प्रकृति की स्थूल चीजों को उभरने दिये बिना।….

मन-बहलाव की, काम में आराम की, जीवन के लक्ष्य को कुछ समय के लिए या ज्यादा समय के लिए पूरी तरह भूल जाने की और साथ ही जीवन के मूल हेतु को भूल जाने की आवश्यकता को बिलकुल स्वाभाविक और अनिवार्य नहीं मान लेना चाहिये। यह एक ऐसी दुर्बलता है जिसके आगे मनुष्य अभीप्सा की तीव्रता के अभाव, संकल्प-शक्ति की अस्थिरता, अज्ञान, निश्चेतना और निरुत्साह के कारण झुक जाता है। इन प्रवृत्तियों को न्यायसंगत न ठहराओ और शीघ्र ही तुम देखोगे कि ये जरूरी नहीं रहीं; कुछ समय बाद ये तुम्हारे लिए अरुचिकर, यहां तक कि, अग्राह्य हो जायेंगी। तब मनुष्य की कृतियों का एक छोटा नहीं, बल्कि काफी बड़ा भाग, जो “मन-बहलाव” कहलाता है पर सचमुच है नीचे ले जाने वाला, अपना आधार और प्रोत्साहन खो बैठेगा।

संदर्भ : शिक्षा के ऊपर 


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