मैं कह सकती हूँ कि देह के कोषों को अपना सहारा, अपना आधार सिर्फ़ ‘दिव्यता’ में खोजना होगा, तब तक जब तक वे यह महसूस करने में समर्थ न हो जाएँ की वे ‘दिव्यता’ की अभिव्यक्ति ही तो है । स्पष्ट है न?
संदर्भ : श्रीमाँ के एजेंडा (खण्ड -१२)
मैं कह सकती हूँ कि देह के कोषों को अपना सहारा, अपना आधार सिर्फ़ ‘दिव्यता’ में खोजना होगा, तब तक जब तक वे यह महसूस करने में समर्थ न हो जाएँ की वे ‘दिव्यता’ की अभिव्यक्ति ही तो है । स्पष्ट है न?
संदर्भ : श्रीमाँ के एजेंडा (खण्ड -१२)
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