तरुणी गार्गी कालरा आश्रम अस्थायी रूप से आयी थीं। उनके पिता ने उनसे कहा था, “तुम आश्रम जाओ तथा वहाँ जो कुछ भी सीखने को है, सीख कर वापस आना और अपने परिवार की प्रगति में सहायता करना। ”
किन्तु आश्रम आकर गार्गी को अनुभूति हुई कि यही उनका सच्चा घर है। उन्होने अपने पिता को लिखा, “मैंने आश्रम जीवन स्वीकार कर लिया है; मेरे लौटने का कोई प्रश्न ही नहीं उठता।” इसके पहले गार्गी की छोटी बहन कांता भी आश्रमवासिनी हो गयी थीं। उनके पिता बहुत विचलित हो गये । उन्होने अपनी पुत्रियों को पत्र लिखा, “तुम मेरी पुत्रियाँ हो या नहीं? तुम्हारा अपने माता-पिता और परिवार के प्रति कुछ दायित्व है या नहीं ? अगर हम तुम्हें बुलायें या हमें आवश्यकता हो तो तुम आओगी या नहीं?” उन्होने इसी प्रकार की बहुत-सी-बातें लिखीं। गार्गी ने आश्रम के सचिव श्री नलिनी-कान्त गुप्त से कहा कि वे माताजी के सम्मुख उनके पिता के प्रश्न रख कर पथ-निर्देश की प्रार्थना करें।
श्रीमाँ ने उत्तर दिया, “उनसे कहो वे मेरे पास आयी हैं। मेरा सरंक्षण, मेरा प्रेम, सभी कुछ उनके लिये है । जो भगवान के पास आते हैं उनका किसी के प्रति कोई दायित्व नहीं होता।”
(यह कहानी मुझे सुश्री गार्गी कालरा ने सुनाई थीं )
संदर्भ : श्रीअरविंद एवं श्रीमाँ की दिव्य लीला
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