लोगो को कृपा की क्रिया का भान तक नहीं होता जब तक कोई खतरा न आ जाये, यानी, जब तक किसी दुर्घटना का आरम्भ न हो जाये या जब दुर्घटना हो चुकी हो और वे उसमें से बच निकलें हो, तब वे सचेतन हो उठते है ; लेकिन उन्हें इस बात का भान नहीं होता, जैसे , उदाहरण के लिए, कोई यात्रा या कोई और चीज़ दुर्घटना के बिना हो जाती है तो यह कही अधिक महान कृपा है। यानी, सामंजस्य एक ऐसे ढंग से स्थापित हो जाता है कि कुछ भी नहीं हो सकता; लेकिन मन को यह बिलकुल स्वाभाविक प्रतीत होता है । जब लोग बीमार पड़ते है और जल्दी ठीक हो जाते है तो वे कृतज्ञता से भरपूर होते हैं। लेकिन जब वे स्वस्थ होते हैं तो कृतज्ञ होने का कभी विचार भी नहीं करते; फिर भी यह ज्यादा बड़ा चमत्कार है ।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५६
यदि तुम्हारें ह्रदय और तुम्हारी आत्मा में आध्यात्मिक परिवर्तन के लिए सच्ची अभीप्सा jहै, तब…
जब शारीरिक अव्यवस्था आये तो तुम्हें डरना नहीं चाहिये, तुम्हें उससे निकल भागना नहीं चाहिये,…
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अगर श्रद्धा हो , आत्म-समर्पण के लिए दृढ़ और निरन्तर संकल्प हो तो पर्याप्त है।…