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कर्म में समर्पण और चेतना

हमेशा भगवान की उपस्थिति में ही निवास करो; इस अनुभूति में रहो कि यह उपस्थिति ही तम्हारी प्रत्येक क्रिया को गति देती है और जो कुछ
तुम करते हो उसे वही कर रही है। अपने सभी क्रिया-कलापों को इसी को समर्पित कर दो, केवल प्रत्येक मानसिक क्रिया, प्रत्येक विचार और भाव
को ही नहीं, बल्कि अत्यन्त साधारण और बाह्य क्रियाओं को भी, उदाहरणार्थ, भोजन को भी उसी को अर्पित कर दो; जब तुम भोजन करो तो तुम्हें
अनुभव होना चाहिये कि इस क्रिया में तुम्हारे द्वारा भगवान् ही भोजन कर रहे हैं। जब तुम इस प्रकार अपनी समस्त प्रवृत्तियों को एक ‘अखण्ड जीवन’ में एकत्रित कर सकोगे तब तुम्हारे अन्दर भेदभाव की जगह एकता होगी। तब यह अवस्था न रहेगी कि तुम्हारी प्रकृति का एक भाग तो भगवान् के अर्पित हो और बाकी भाग अपनी साधारण वृत्तियों में पड़े रहें और साधारण चीजों में लिप्त रहें, बल्कि तब तुम्हारे सम्पूर्ण जीवन को भगवान अपने हाथ में ले लेंगे और क्रमशः तुम्हारी प्रकृति का सम्पूर्ण रूपान्तर होने लगेगा।…

अपनी प्रत्येक प्रवृत्ति में, चाहे वह बौद्धिक हो या सक्रिय, तुम्हारा एकमात्र मन्त्र होना चाहिये : “स्मरण और समर्पण”। तुम जो कुछ करो वह सब भगवान् के अर्पण हो। यह तुम्हारे लिए एक सुन्दर साधना बन जायेगी और अनेक मूर्खतापूर्ण और निरर्थक चीजों से तुम्हारी रक्षा करेगी।

संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९२९-१९३१

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