अपने-आपको अपने-आपसे बड़े के हाथों में पूरी तरह दे देने से बढ़ कर पूर्ण और कोई आनंद नहीं है। ‘भगवान’, ‘परम स्त्रोत’, ‘भागवत उपस्थिती’, निरपेक्ष सत्य’ – इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम ‘उसे’ क्या नाम देते हैं या उसके किस रूप के द्वारा उस तक पहुँचते हैं – सम्पूर्ण निवेदन में अपने-आपको पूरी तरह भूल जाना ‘उपलब्धि’ की ओर जाने का निश्चिततम मार्ग है ।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५३
भगवान को अभिव्यक्त करने वाली किसी भी चीज को मान्यता देने में लोग इतने अनिच्छुक…
आश्रम में दो तरह के वातावरण हैं, हमारा तथा साधकों का। जब ऐसे व्यक्ति जिसमें…
मनुष्य-जीवन के अधिकांश भाग की कृत्रिमता ही उसकी अनेक बुद्धमूल व्याधियों का कारण है, वह…
श्रीअरविंद हमसे कहते हैं कि सभी परिस्थितियों में प्रेम को विकीरत करते रहना ही देवत्व…