… एक क्षण होता है जब जीवन, जैसा कि वह इस समय है, मानव चेतना, जैसी कि वह इस समय है, एकदम असह्य हो जाती है, वह एक प्रकार की जुगुप्सा पैदा करती है; व्यक्ति कह उठता है ” नहीं, यह वह नहीं है, यह वह नहीं है; यह वह नहीं हो सकता, यह जारी नहीं रह सकता। ”
हाँ तो, जब तुम यहाँ तक पहुँच जाओ, तो बस अपने सब कुछ की आहुति देनी बाकी रहती है – अपना सारा प्रयास, अपना सारा बल, अपना सारा जीवन , अपनी सारी सत्ता – इस अपवादिक अवसर में झोंक दो जो तुम्हें उस पार जाने के लिए दिया गया है। नये पथ पर पग रखने में कितनी राहत है, उस पथ पर जो तुम्हें कही और ले जायेगा ! आगे छलांग लगाने के लिए बहुत सारे असबाब पीछे फेंकने का, बहुत सारी चीजों से पिण्ड छुड़ाने का यह कष्ट उठाना सार्थक होगा। मैं समस्या को इसी रूप में देखती हूँ।
वस्तुतः यह उदात्ततम साहस-यात्रा और अगर तुम्हारें अंदर जरा भी साहस-यात्रा की भावना है, तो यह सर्वस्व के लिए सर्वस्व की बाजी लगाने-लायक है ।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५५
तुम्हारी श्रद्धा, निष्ठा और समर्पण जितने अधिक पूर्ण होंगे, भगवती मां की कृपा और रक्षा भी…
भगवान् ही अधिपति और प्रभु हैं-आत्म-सत्ता निष्क्रिय है, यह सर्वदा शान्त साक्षी बनी रहती है…
अगर चेतना के विकास को जीवन का मुख्य उद्देश्य मान लिया जाये तो बहुत-सी कठिनाइयों…
दुश्मन को खदेड़ने का सबसे अच्छा तरीक़ा है उसके मुँह पर हँसना! तुम उसके साथ…
आलोचना की आदत-अधिकांशतः अनजाने में की गयी दूसरों की आलोचना-सभी तरह की कल्पनाओं, अनुमानों, अतिशयोक्तियों,…