कुछ ऐसे अति-धर्मशील लोग होते है जो अपने सामने समस्याएँ  तो खड़ी कर लेते हैं, पर उन्हें सुलझाना उनके लिये बड़ा कठिन होता है, क्योंकि वे समस्या को रखते ही ग़लत रूप में हैं । मैं एक युवती को जानती थी जो थीयोसोफिस्ट थी और साधनाभ्यास कर रही थी, उसने मुझसे कहा : ”हमें सिखाया जाता है कि हम जो भी करें उस सब में भगवान की इच्छा पूरी होनी चाहिये, पर प्रातः जब मैं अपना नाश्ता करती हूँ  तो उसमें मैं कैसे यह जान सकती हूँ  कि भगवान् मेरी काफ़ी में दो चम्मच चीनी डलवाना चाहते है या केवल एक? ”… और यह काफी हृदयस्पर्शी था, है न, और मुझे उसे समझाने में  थोडी कठिनाई हुई कि वह भावना जिसके साथ वह अपनी काफ़ी पीती है और वह वृत्ति जो वह अपने भोजन- के प्रति रखती है  ,कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण है बनिस्पत इसके कि कितने चम्मच चीनी के उसने अपनी काफ़ी में डाले ।

संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५७-१९५८

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