सहज भाव से, और इस विषय में सचेतन हुए बिना ही, लोग आग्रहपूर्वक यह चाहते हैं कि भगवान् हमारी धारणाओं के अनुरूप हों। क्योंकि, बिलकुल सहज रूप से, ज़रा भी विचार किये बिना, वे तुमसे कहते हैं : “ओह ! यह चीज़ दिव्य है, यह चीज़ दिव्य नहीं है!” भला इस विषय में वे क्या जानते हैं? और फिर ऐसे लोग भी हैं जिन्होंने भगवत्पथ पर अभी तक पाँव भी नहीं रखा है, जो यहाँ आते हैं और वस्तुओं और लोगों को देखते हैं और तुमसे कहते हैं : “इस आश्रम का भगवान् के साथ कोई नाता नहीं है, यह बिलकुल ही दिव्य नहीं है।” परन्तु उनसे यदि यह पूछा जाये कि : “आख़िर दिव्य है क्या?” तो इसका उत्तर देना उनके लिए कठिन हो जायेगा; वे इस बारे में कुछ नहीं जानते। और लोग जितना कम जानते हैं उतना ही अधिक निर्णय देते हैं; यह एकदम पक्की बात है। जितना अधिक मनुष्य जानता है, वस्तुओं के विषय में अपने निर्णय की उतनी ही कम घोषणा करता है।
और एक ऐसा मुहूर्त आता है जब हम बस इतना ही कर सकते हैं कि देखते रहें; परन्तु उस समय निर्णय देना असम्भव हो जाता है। उस समय हम वस्तुओं को देख सकते हैं, और उसी तरह देख सकते हैं जैसी कि वे हैं-अपने पारस्परिक सम्बन्धों और अपने स्थान में जैसी हैं, और इस अभिज्ञता के साथ देखते हैं कि वे अभी जिस स्थान पर हैं उस स्थान और उन्हें जिस स्थान पर होना चाहिये उस स्थान के बीच क्या अन्तर है -क्योंकि बस यही संसार में सबसे बड़ी अव्यवस्था है-पर हम राय नहीं बनाते, केवल देखते हैं।
और एक मुहूर्त ऐसा आता है जब हम यह कहने में असमर्थ हो जाते हैं : “यह वस्तु दिव्य है और यह दिव्य नहीं है”, क्योंकि एक ऐसा मुहूर्त आता है जब हम समूचे विश्व को इतने पूर्ण और व्यापक रूप में देखते हैं कि, सच पूछा जाये तो, उसकी प्रत्येक वस्तु को अस्तव्यस्त किये बिना उसमें से किसी वस्तु को निकाल लेना असम्भव होता है।
एक या दो पग और भी आगे बढ़ाने पर, पूरी निश्चयता के साथ, हम यह जान जाते हैं कि जो चीजें भगवान के विपरीत होने के कारण हमें धक्का पहुँचाती हैं, वे बस वे ही चीजें हैं जो अपने स्थान पर नहीं हैं। प्रत्येक वस्तु ठीक-ठीक अपने ही स्थान पर होनी चाहिये और, साथ-ही-साथ, वह पर्याप्त नमनीय, पर्याप्त लचकदार होनी चाहिये ताकि सुसमञ्जस सतत प्रगतिशील संगठन के अन्दर वह उन सब नवीन तत्त्वों को प्रवेश करने दे। जो अभिव्यक्त विश्व के साथ निरन्तर युक्त किये जा रहे हैं।
सन्दर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५६
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