आध्यात्मिक प्रगति बाह्य परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती, जैसी कि हम आन्तरिक रूप से परिस्थितियों के बारे में प्रतिक्रिया करते हैं यह सदा ही आध्यात्मिक अनुभूति के बारे में अन्तिम वक्तव्य रहा है। इसीलिए हम उचित मनोभाव अपनाने और उसे आग्रहपूर्वक बनाये रखने पर इतना बल देते हैं और आग्रह करते हैं एक ऐसी आन्तरिक अवस्था पर जो बाहरी परिस्थितियों पर निर्भर न हो, समानता और शान्ति की अवस्था पर-भले वह तुरन्त आन्तरिक प्रसन्नता में न बदली जा सके, लेकिन व्यक्ति अधिकाधिक अपने अन्दर जाकर अन्दर से बाहर की ओर देखे, न कि जैसा कि प्रायः होता है कि वह सतही मन में रमा रहता है और जीवन के धक्कों और प्रहारों की दया पर जीता है। उस आन्तरिक अवस्था में जीने पर ही व्यक्ति जीवन का स्वामी बन कर, विक्षुब्ध कर देने वाली शक्तियों पर विजय पाने की आशा कर सकता है।
अन्दर शान्त बने रहना, कठिनाइयों से पार जाने की बलवती इच्छा रखना, कठिनाइयों और उतार-चढ़ावों से विक्षुब्ध या हतोत्साह होने से एकदम इन्कार कर देना–पथ पर आगे बढ़ने के लिए यह पहली चीजों में से एक है जो सीखनी है। इससे भिन्न करना, चेतना की अस्थिरता को बढ़ावा देना, अनुभूति को बनाये रखने में जिन कठिनाइयों की तुम शिकायत करते हो उन्हें उत्साहित करना होगा। केवल तभी जब तुम अन्दर से शान्त और स्थिर रहते हो कि अनुभूतियों की श्रृंखला कुछ स्थिर गति से चलती रह सकती है यद्यपि विचलन और उतार-चढाव के काल बीच-बीच में आते ही रहते हैं। लेकिन अगर इन कालों को उचित रूप में लिया जाये तो ये ही साधना के निषेध के स्थान पर आत्मसात्करण और कठिनाइयों को दूर हटा सकने के काल हो सकते हैं।
संदर्भ : श्रीअरविंद के पत्र (भाग – २)
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