यदि किसी को निकट आंतरिक संबंध प्राप्त हो तो वह माताजी को सदैव अपने पास और अंदर तथा चारों ओर अनुभव करता है और उससे अधिक निकट भौतिक संबंध को उस संबंध की खातिर ही प्राप्त करने के लिये कतई आग्रह नहीं करता । जिन्हें यह प्राप्त नहीं उन्हें इसके लिये अभीप्सा करनी चाहिये और दूसरे प्रकार के संबंध के लिये लालायित नहीं होना चाहिये । यदि उन्हें बाह्य समीपता प्राप्त हो जाये तो उन्हें पता चलेगा कि आंतरिक एकता और समीपता के बिना उसका कुछ अर्थ नहीं । शरीर से व्यक्ति माताजी के पास हो सकता है और फिर भी उनसे उतना दूर हो सकता है जितना सहारा का मरुस्थल।
संदर्भ : माताजी के विषय में
तुम जिस चरित्र-दोष की बात कहते हो वह सर्वसामान्य है और मानव प्रकृति में प्रायः सर्वत्र…
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…
मधुर माँ, जब श्रीअरविंद चेतना के परिवर्तन की बात करते हैं तो उनका अर्थ क्या…