यदि किसी को निकट आंतरिक संबंध प्राप्त हो तो वह माताजी को सदैव अपने पास और अंदर तथा चारों ओर अनुभव करता है और उससे अधिक निकट भौतिक संबंध को उस संबंध की खातिर ही प्राप्त करने के लिये कतई आग्रह नहीं करता । जिन्हें यह प्राप्त नहीं उन्हें इसके लिये अभीप्सा करनी चाहिये और दूसरे प्रकार के संबंध के लिये लालायित नहीं होना चाहिये । यदि उन्हें बाह्य समीपता प्राप्त हो जाये तो उन्हें पता चलेगा कि आंतरिक एकता और समीपता के बिना उसका कुछ अर्थ नहीं । शरीर से व्यक्ति माताजी के पास हो सकता है और फिर भी उनसे उतना दूर हो सकता है जितना सहारा का मरुस्थल।

संदर्भ : माताजी के विषय में 

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