बाह्य कर्मों में अहंकार प्रायः छिपा रहता है और बिना पते लगे स्वयं को संतुष्ट करता रहता है – लेकिन, जब साधना का दबाव पड़ता है, यह अपनी उपस्थिति जताने के लिए बाध्य होता है, तब जो करना है वह है – इसका त्याग कर देना और अपने-आपको इससे मुक्त कर लेना तथा अपने कर्म का लक्ष्य मात्र दिव्य प्रभु को बना लेना।
योग का वातावरण बनायें रखना आसान नहीं होता जब कोई लगातार उन लोगों के सम्पर्क में रहे जो दूसरी चेतना में निवास करते हैं – केवल तभी जब कि बाहर, और साथ ही साथ आन्तरिक चेतना में भी व्यक्ति पूर्ण आधार बना सके कि वह किसी भी परिवेश में योग के वातावरण को पूर्णतः बनाये रख सकता है।
संदर्भ : श्रीअरविंद अपने विषय में
उदार हृदय हमेशा पुराने दुर्व्यवहारों को भूल जाता है और दुबारा सामंजस्य लाने के लिए…
तुम जिस चरित्र-दोष की बात कहते हो वह सर्वसामान्य है और मानव प्रकृति में प्रायः सर्वत्र…
भगवान के प्रति आज्ञाकारिता में सरलता के साथ सच्चे रहो - यह तुम्हें रूपांतर के…
अधिकतर लोग कार्यों को इसलिये करते हैं कि वे उन्हें करने पड़ते है, इसलिये नहीं…