मधुर मां,
सचमुच मुझे लगता है कि यहां हमारे और हमारे विभिन्न विभागों के बीच सामञ्जस्य का बहुत अभाव है और इसका परिणाम है धन और ऊर्जा का बहुत अधिक अपव्यय। यह असामञ्जस्य आता कहां से है और यह कब ठीक होगा?
या मेरा यह भाव मेरी अपनी प्रकृति का प्रतिबिम्ब है!
यह रहा तुम्हारे प्रश्न का सबसे अच्छा उत्तर और यह श्रीअरविन्द का लिखा हुआ है :
हर एक अपने अन्दर इस असामञ्जस्य के बीज को लिये रहता है। और उसका सबसे अधिक जरूरी काम है, अपने-आपको सतत अभीप्सा
द्वारा उससे शुद्ध करना।
संदर्भ : श्रीमातृवाणी (खण्ड-१६)
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