भगवान् के अवतार के आने का आन्तरिक फल उन लोगों को प्राप्त होता है जो भगवान् की इस क्रिया से दिव्य जन्म और दिव्य कर्मों के वास्तविक मर्म को जान लेते हैं और अपनी चेतना में भगवन्मय होकर, सर्वथा भगवदाश्रित होकर रहते हैं, मन्मया मामुपाश्रिताः, और अपने ज्ञान की तपःशक्ति से पवित्र होकर, ज्ञानतपसा पूताः, अपरा प्रकृति से मुक्त होकर भगवान् के स्वरूप और स्वभाव को प्राप्त होते हैं, मद्भावमागताः । मनुष्य के अन्दर इस अपरा प्रकृति के ऊपर जो दिव्य प्रकृति है उसे प्रकट करने के लिए तथा बन्धनरहित, निरहंकार, निष्काम, निवैयक्तिक, विश्वव्यापक, भागवत ज्योति, भागवत शक्ति और भागवत प्रेम से परिपूर्ण दिव्य कर्म दिखलाने के लिए भगवान् का अवतार हुआ करता है। भगवान् आते हैं उस दिव्य व्यक्तित्व के रूप में जो मनुष्य की चेतना में बस जायेगा और उसके अहंभावापन्न परिसीमित व्यक्तित्व की जगह ले लेगा, ताकि मनुष्य अहंकार से मुक्त होकर अनन्तता और विश्वव्यापकता में फैल जाये, जन्म के पचड़े से निकल कर अमर हो जाये। भगवान् भागवत शक्ति और प्रेम के रूप में आते हैं, जो मनुष्यों को अपनी ओर बुलाते हैं ताकि मनुष्य उन्हीं का आश्रय लें और अपनी मानव- इच्छाओं की अपर्याप्तता में और न रमे रहें, अपने काम-क्रोध और भयजनित द्वन्द्वों से छूट जायें और इस महान् दुःख और अशान्ति से मुक्त होकर भागवत शान्ति और आनन्द में निवास करें। ।
संदर्भ : गीता प्रबंध
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