सबसे पहले हमें सचेतन होना होगा, फिर संयम स्थापित करना होगा और लगातार संयम को बनाये रख कर हम अपनें स्वभाव को परिवर्तित कर लेते हैं। स्वभाव का परिवर्तन सबसे अंत में आता है। हमें अपनी बुरी आदतों पर, पुरानी आदतों पर संयम प्राप्त करना होता है, इतने दीर्घकाल तक संयम रखना पड़ता है कि वे सब झड़ जायें और स्वभाव बदल जाये।
हम किसी ऐसे व्यक्ति का उदाहरण ले सकते हैं, जो बार-बार अवसन्न हो जाता है। जब चीज़ें ठीक वैसे नहीं होतीं जैसी कि वह उन्हें चाहता है तो वह अवसन्न हो जाता है। अतः प्रारम्भ करने के लिए, उसे अपने अवसाद के विषय में सचेतन होना होगा – केवल अवसाद के विषय में ही नहीं बल्कि अवसाद के कारणों के विषय में भी सचेतन होना होगा कि क्यों वह इतनी आसानी से अवसन्न हो जाता है। उसके बाद, जब एक बार वह सचेतन हो जाये तो उसे अपने अवसादों पर प्रभुत्व प्राप्त करना होगा, जब अवसाद का कारण उपस्थित हो फिर भी उसे अवसन्न होना बंद कर देना होगा – उसे अपने अवसाद पर विजय प्राप्त करनी होगी, उसका आना रोक देना होगा। और अंत में, इस कार्य के लम्बे समय तक होते रहने के बाद, उसकी प्रकृति अवसन्न होने की आदत खो देती है और उसके बाद अब उसी ढंग से प्रतिक्रिया नहीं करती, उसकी प्रकृति बदल जाती है।
संदर्भ : प्रश्न और उत्तर १९५०-१९५१
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